
Biography of Madam Bhikaji cama in hindi. मादाम भीकाजी कामा ऐसी शक्सियत का नाम हैं। जिन्होंने अपना पूरा जीवन देश को आजाद कराने के लिए समर्पित कर दिया और जीवन भर देश विदेश घूमकर स्वतंत्रता की अलख जलाती रही। उन्होंने विश्व का ध्यान भारत की आजादी की ओर आकर्षित करने के लिए विभन्न अन्तराष्ट्रीय मंचो पर अपनी आवाज उठाती रही।
- नाम – मादाम भीकाजी रुस्तमजी कामा
- पिता – सोहाराबजी फ्रेमजी पटेल
- माता – जिजिबाई
- जन्म – 24 सितंबर 1861( बम्बई )
- शिक्षा- अलेक्जेंड्रिया गर्ल्स स्कूल
- विवाह – रुस्तमजी कामा
प्रारंभिक जीवन:
भीकाजी कामा का जन्म 24 सितम्बर 1861 को बम्बई के एक संपन्न पारसी परिवार में हुआ था। इनके पिता सोहराबजी पटेल एक सम्पन्न व्यापारी थे। ये अपने पिता की 9 संतानों में से एक थी।भीकाजी कामा ने अपनी प्रारंभिक शिक्षा अलेक्जेंड्रिया गर्ल्स स्कूल में प्राप्त की।
भीकाजी कामा बचपन से ही तीव्र बुद्धि होने के साथ ही समाज के प्रति एक संवेदन शील लड़की थी। वे अपने आस-पास घटने वाली घटनाओं पर अपनी तीव्र नजर रखती थी। इसी लिए अंग्रेज सरकार के विरुद्ध उनके मन में विरोध के बीज बचपन से ही पनपने लगे थे।
तभी उन दिनों में बम्बई में प्लेग की भयंकर बीमारी फैली जिसमें बहुत बड़ी संख्या में लोग मरने लगे। चारों ओर अफरा-तफरी मचने लगी जिससे लोग बम्बई छोड़-छोड़ कर भागने लगे।
इस समय में भीकाजी कामा जैसी संवेदन शील महिला अपने आप को समाज से कैसे अलग रख सकती थी। वे दिन रात प्लेग से पीड़ित लोगों के सेवा में लग गई|प्लेग की इस बीमारी ने उन्हें भी अपनी चपेट में ले लिया। जिससे वे कमजोर होती गई उन्हें उनके परिवार ने इलाज के लिए यूरोप भेज दिया।
उनके परिवार का मानना था कि भारत से दूर रहकर वे समाज सेवा और अंग्रेज सरकार का विरोध करना छोड़ देंगी।
भीकाजी कामा का झुकाव समाज सेवा और राजनीति की ओर बढ़ते देख। उनके पिता सोहराबजी ने उनका विवाह बम्बई के प्रसिद्ध वकील रुस्तमजी कामा से करा दिया। रुस्तम जी कामा का परिवार अंग्रेज सरकार व अंग्रेजियत का हितेषी था। जबकि भीकाजी कामा में राष्ट्रवाद व समाज सेवा का भाव पहले से ही था।
इस विषय पर दोनों के बीच वैचारिक भिन्नता थी। जिसका प्रभाव उनके वैवाहिक जीवन पर भी पड़ने लगा। धीरे- धीरे ये वैचारिक भिन्नता इतनी बढती गई कि पति-पत्नी के बीच बोलचाल भी बंद हो गई।
1901 में वे पेरिस पहुंची वहां उन्होंने अपना इलाज कराया|इसके बाद वे यूरोप के विभिन्न देशों में घूमी। 1905 में वे लन्दन पहुंची। उन दिनों दादा भाई नौरोजी लन्दन में ही थे। वे उनके संपर्क में आई और उनके निजी सचिव के रूप में काम करने लगी। यही पर उनकी मुलाकात लाला हरदयाल, श्याम जी कृष्ण ,विनायक दामोदर सावरकर,सरदार सिंह राना जैसे राष्ट्रवादियों के साथ हुई।
श्याम जी कृष्ण द्वारा इंडियन सोशियोलोजिस्ट नामक एक पत्र निकाला जाता था। भीकाजी कामा ने इस पत्र की लेखिका के रूप में भी काम किया।
इन्होने होमरूल सोसायटी के लिए भी काम किया जो प्रवासी भारतीय क्रांतिकारियों द्वारा संचालित एक संस्था थी। इधर भीकाजी कामा जहां वैचारिक मंचों पर पूरी दुनियां का ध्यान भारत के अंग्रेज शासन के विरुद्ध एक माहोल तैयार कर रही थी।
वहीं वे दूसरी ओर भारत के क्रांतिकारियों को खिलोनों और साहित्य की आड़ में हथियार भी भारत में भेज रही थी।
धीरे-धीरे इंग्लेंड में भारत की अंग्रेज सरकार के विरुद्ध माहौल बनने लगा तो ब्रिटिश सरकार ने उन पर पाबंदियां लगाना शुरू कर दिया जिनसे उनके लिए इंग्लेंड में रहकर कार्य करना मुश्किल हो गया। इसके बाद वे लाला हरदयाल, श्याम जी कृष्ण, सरदार सिंह राना के साथ पेरिस आ गई। अब पेरिस भारतीय क्रांतिकारियों का गढ़ बन गया।
1907 में जर्मनी के शहर स्टुटगार्ड में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन हुआ। उसमे भारतीयों की ओर से भीकाजी कामा, सरदार सिंह राना, वीरेंदर नाथ चट्टोपाध्याय ने प्रतिनिधित्व किया।
मंच पर आते ही उन्होंने अपने बैग से एक झंडा निकाला और कहा ये मेरा नियम है की अपने देश का झंडा फेराकर ही मैं बोलना शुरू करती हूँ। मैं आप सभी से निवेदन करती हूँ की आप लोग झंडे के सम्मान में खड़े हो जाये और उसका अभिवादन करें।
ये भीकाजी कामा के ओजस्वी व्यक्तित्व का ही प्रमाण था की सभी ने खड़े होकर झंडे का अभिवादन किया।
इस प्रकार यह प्रथम भारतीय झंडा था जो किसी अंतर्राष्ट्रीय मंच पर फहराया गया। इस झंडे की डिजायन मादाम भीकाजी कामा, वीर सावरकर तथा कुछ अन्य सहयोगियों द्वारा किया गया था।
अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में मादाम भीकाजी कामा की मुलाकात रुसी नेता लेनिन से हुई। इस सम्मलेन के बाद वे अमेरिका चली गई।
उनका ये मानना था की अमेरिका ने भी अपनी स्वतंत्रता के लिए संघर्ष किया था। इसलिए वहां की जनता वैचारिक रूप से उनका समर्थन करेगी। न्यूयार्क पहुँचने से पहले ही उनकी प्रसिद्धि वहां पहुँच गई थी।
वहां उनकी मुलाकात क्रांतिकारी मौलवी बरकतुल्ला से हुई।अमेरिका प्रवास के दौरान वे मादाम भिकाजी कामा के साथ रहे।
न्यूयार्क में भीकाजी कामा ने कई स्थानों पर भाषण दिए एक भाषण में उन्होंने कहा कि ,” ब्रिटेन ने हमारे खून की बूंद-बूंद चूसकर भी यह प्रचारित किया की भारत की जनता हमारे राज्य में सुखी हैं वह स्वाधीनता नहीं चाहती। उन्होंने विश्व के सभी देशों से अपील की कि सभी स्वाधीन देशों का यह कर्तव्य है कि स्वाधीनता संघर्ष में वे हमारी मदद करें”।
अमेरिकी प्रवास के बाद वे पुनः लन्दन चली गई क्योकि वहां भारत से कई बड़े कांगेसी नेता आने वाले थे। वे उनसे भारत की वास्तविक हालात जानना चाहती थी।
लन्दन में एक सम्मलेन हुआ जिसमे लाला लाजपत राय,विपिन चन्द्र पाल,गोकुल चन्द्र नारंग,आदि नेताओं के साथ सम्मेलन में शामिल हुई।
1907 में विनायक दामोदर सावरकर के प्रेरणा से लन्दन के इंडिया हाउस में प्रथम स्वाधीनता संग्राम का अर्ध शताब्दी समारोह मनाया गया। सावरकर द्वारा लिखी प्रथम स्वाधीनता संग्राम का इतिहास को इन्होने प्रकाशित कर सभी देशों में उसकी प्रतियाँ भेजी। उसकी एक प्रति मैक्सिम गोर्की के पास रूस भी भेजी। भगत सिंह ने इसका हिंदी में अनुवाद कर तथा सुभाष चन्द्र बोस ने इसका अंग्रेजी में अनुवाद कर इसकी प्रतियाँ गोपनीय रूप से प्रसारित की।
लन्दन में अपने कार्य को संपन्न कर वे वापस पेरिस लौट आई। यहाँ उन्होंने वन्देमातरम नामक पत्र का प्रकाशन किया। जिसका संपादन लाला हरदयाल करते थे। लेकिन अपने उग्र विचारों के कारण फ़्रांस की सरकार ने इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया। जिसकी कारण इसे बंद करना पड़ा जिसे बाद में जेनेवा व हालेंड से प्रकाशित किया गया।
वीर सावरकर को पकड़कर जब फ़्रांस ले जाया जा रहा था तो वे चलते जहाज से कूदकर तैरकर फ़्रांस के तट पर पहुंचे तो उन्हें फिर पकड़ लिया गया और वे इस मामले को अंतर राष्ट्रीय न्यायलय हेग में ले गई पर उन्हें वहां हार का सामना करना पड़ा।
प्रथम विश्व युद्ध के दौरान भारत से हिन्दुस्तानी फौजे जब फ़्रांस के बंदरगाह पर पहुँचती तो वे उनसे मिलती और उन्हें समझाती कि जिस देश की और से तुम लड़ने जा रहे हो उन्होंने तो हमारी भारत माता को कैद कर रक्खा है।
यदि तुम अंग्रेजो की ओर से लड़ोगे तो ये बंधन और मजबूत हो जायेगा। उनके इस व्यवाहर की खबर जब फ़्रांस की सरकार को लगी तो उन्होंने उन्हें विशी नामक एक पुराने किले में कैद कर लिया।
उन्हें वहां से प्रथम विश्व युद्ध के बाद ही छोड़ा|इस कैद ने उन्हें शारीरिक रूप से बहुत ही कमजोर बना दिया।
बढती हुई उम्र और शारीरिक कमजोरी के कारण उन्होंने अपने मनोबल को कभी भी कम नही होने दिया। और इसके बाद वे भारत लौट आई। 8 माह अस्पताल में रहने के बाद 13 अगस्त 1936 में उनका स्वर्गवास हो गया। इस प्रकार भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के एक लौ हमेशा के लिए शांत हो गई ।
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